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रविवार, 6 मई 2012

Aise Likhati Hun Mai Khat ऐसे लिखती हूँ मैं ख़त




देखो ऐसे लिखती हूँ मैं ख़त
तुम भी देखो और बताओ ठीक तो है ना....


हर बार लिखती हूँ ख़त ये सोचकर 
की,शायद इस बार आ जाये कोई जवाब.
यादों की कलम से लिखना शुरू करती हूँ 
हर बार भर देती हूँ अपनी सारी भावनाए उसमे......
अरमानों के चाँद तारे से थोडा सजा भी देती हूँ ......
फिर उसमे खुशबू भी झिड़क देती हूँ ,,,,,,
उन खुबसूरत लम्हों की
जो सोचा है मै बिताउंगी उनके साथ .......
जब कभी वो आएंगे मेरे पास ......
कुछ सपने भी लिख देती हूँ ,,,
कुछ प्यारभरे ,,मधभरे गीतों की पंक्तियाँ भी लिख देती हूँ 
उन्हें प्रलोभन देने के लिए 
हाँ- हाँ श्रृंगार का भी इशारा दे देती हूँ
ये भी तो कम नहीं है...
एक बार अच्छे से दोहराती हूँ कहीं कुछ छुट ना जाये 
फिर एक सुन्दर से लिफाफे में रखकर भेज देती हूँ उनके पास 
इस आशा में की शायद 
इस बार आये कोई जवाब,,,,,
ऐसे लिखती हूँ मै ख़त .....
ठीक तो है ना 
कहीं कुछ रह तो नहीं गया .....
अपने आप से ही सवाल करती हूँ 
प्रिय |||| तेरे जवाब का मै इंतजार करती हूँ   ....


areee please please please... ise sirf kavita ke roop me hi dekhe....
vastavik jindagi se is rachana ka koi sarokaar nahi hai....


सोमवार, 30 अप्रैल 2012

Uljhan उलझन.....

( लिजिए आ गयी हूँ मैं अपनी उलझन लेकर )



जब भी बढ़ते है कदम ऊँचाई की ओर 
रिश्तों की डोर ढ़ीली हो जाती है 
जिनसे उम्मीद हो साथ निभाने का 
ना जाने क्यों उनसे ही दुरी हो जाती है 
सच कामयाबी देती है- कुछ 
पर लेती है- बहुत कुछ 
जब भी चढ़ती हु एक सीढ़ी 
मंजिल की तरफ हाथ बढाती ही हूँ की,,,
अपनों का हाथ छुटता जाता है
समझ में फेर है उनके 
या मेरी ही कहीं गलती है
कुछ पाने की चाह थी 
बस इतनी सी तो आस थी 
या यही मेरी गलती है.....
तुम क्यों ना समझ पाए मेरी ख्वाहिशे 
मेरी आशाये .....,मेरी मंजिले....,,,
हमराह बनने की बजाय क्यों गुमराह हुए तुम 
कैसी ये उलझन है मंजिले भी अपनी है..
रिश्ता भी अपना......
 किसे समझे किसे समझाए ...
 उलझन.....



s4u
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