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शनिवार, 23 जुलाई 2011

Parchhayi परछाई



मै हू एक परछाई, ये मेरा कैसा  वजूद है
सवेरे होते ही आती हू, शाम को फिर चली जाती हू,
अपने ही रूप को अंधेरे में अकेला छोड़ देती हू,
उजाले में तो सब साथ निभाते है,
पर अँधेरे में कौन साथ निभाएगा,
मेरे रूप को अँधेरे में कौन राह दिखायेगा 
मै कर भी क्या सकती हू ये तो मेरी फितरत है ,
मै,,, मै क्या हू जो भी है  सब कुदरत है.....

अँधेरी रात में है मेरे रूप को एक हमसफ़र की तलाश 
और मै गुमशुदा वीरान जंगल में बैठी हू उदास
दूर से देख रही हू अपने रूप को भटकता हुआ 
पर पास जाकर उसे राह दिखाने में मै हू लाचार
मै कर भी क्या सकती हू ये तो मेरी फितरत है,
मै ,,,,,,मै क्या हू जो भी है सब कुदरत है......

Sham ki tanhayi शाम की तन्हाई

तन्हाई भरी शाम थी वो 
और यादो में थी किसी की याद
उनके आने का इंतजार
करते थे हम भी उनसे बेपनाह प्यार,
उनके दिल में भी थे कुछ जजबात,
 मौसम ने ली अंगडाई ,
और तन्हाई भरी ये शाम आई.
एक रोज बैठा करते थे हम,
आँखों में डाले आँखे ,
आज नजरे चुराके बैठे है वे  कही दूर जाके,
उनके इंतजार में है ये दिल बेक़रार,
क्या उन्हें भी है हमारा इंतजार,
ये शाम की तन्हाई कैसी - कैसी उलझने लायी,
जिसने किया था वादा साथ देने का,
आज उसने क्यों ये दूरिया लायी,
ये शाम की तन्हाई.


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